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भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती पर जानिए उनकी प्रेरणादायक यात्रा और बलिदान की कहानी 

आज पूरा देश जनजाति गौरव दिवस के रूप में भगवान बिरसा मुंडा की 150वीं जयंती मना रहा है। झारखंड के महानायक बिरसा मुंडा को आदिवासी समुदाय भगवान की तरह पूजता है। उनकी प्रेरणादायक कहानी न केवल झारखंड बल्कि पूरे देश के लिए गर्व का विषय है। उनके नाम पर कई योजनाएं चल रही हैं, और संसद भवन परिसर में उनकी प्रतिमा उनकी ऐतिहासिक भूमिका को दर्शाती है।  

बचपन और शिक्षा

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड के खूंटी जिले के उलीहातू गांव में हुआ। उनके पिता सुगना मुंडा और मां करमी मुंडा एक साधारण आदिवासी परिवार से थे। बिरसा ने अपनी शुरुआती पढ़ाई मिशनरी स्कूल से की। पढ़ाई के दौरान उन्होंने देखा कि अंग्रेज कैसे भारतीय समाज पर अत्याचार कर रहे हैं। इस अन्याय को सहन न करते हुए उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने का फैसला किया।  

अकाल के दौरान मानवता की मिसाल  

1894 में, जब छोटा नागपुर क्षेत्र में अकाल और महामारी का प्रकोप हुआ, तब बिरसा ने बिना किसी स्वार्थ के लोगों की सेवा की। यह घटना उनके संघर्षशील और सेवाभाव से भरे व्यक्तित्व को दर्शाती है।  

अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह  

1894 में बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों के खिलाफ लगान माफी का आंदोलन शुरू किया। उनकी बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर अंग्रेजों ने 1895 में उन्हें गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में बंद कर दिया। लेकिन उनकी क्रांति की चिंगारी बुझी नहीं। 1897 से 1900 के बीच अंग्रेजों और मुंडाओं के बीच कई युद्ध हुए।  

खूंटी की लड़ाई और अंग्रेजों का खौफ  

अगस्त 1897 में, बिरसा और उनके साथियों ने खूंटी थाने पर धावा बोल दिया। 1898 में तांगा नदी के किनारे अंग्रेजों और मुंडाओं के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें अंग्रेजी सेना हार गई। हालांकि, अंग्रेजों ने इसका बदला लेते हुए कई आदिवासी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। 1900 में डोमबाड़ी पहाड़ी पर हुए युद्ध में महिलाओं और बच्चों सहित कई निर्दोषों की मौत हो गई।  

आखिरी लड़ाई और निधन  

फरवरी 1900 में, अंग्रेजों ने बिरसा मुंडा को चक्रधरपुर से गिरफ्तार कर रांची जेल में बंद कर दिया। 9 जून 1900 को रांची जेल में उनका निधन हुआ। अंग्रेजों ने उनकी मौत का कारण हैजा बताया, लेकिन यह संदिग्ध माना जाता है क्योंकि उनके शरीर में हैजा के कोई लक्षण नहीं थे।  

सुधारवादी सोच और बिरसाइत आंदोलन 

बिरसा मुंडा ने सामाजिक सुधार के लिए ‘बिरसाइत’ आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने अपने समुदाय को अंधविश्वास, बलि प्रथा और नशे के खिलाफ जागरूक किया। उन्होंने आदिवासियों को संगठित होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।  

जनजातीय गौरव के प्रतीक  

झारखंड के साथ-साथ बिहार, ओडिशा, छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा मुंडा को पूजनीय माना जाता है। रांची के कोकर में उनकी समाधि पर हर साल हजारों लोग श्रद्धांजलि देने पहुंचते हैं।  

आज भी प्रासंगिक है बिरसा मुंडा की विरासत

बिरसा मुंडा का जीवन आदिवासी समाज और देश के लिए प्रेरणा है। उनकी क्रांति ने न केवल अंग्रेजों को चुनौती दी बल्कि सामाजिक सुधार का एक नया मार्ग भी प्रशस्त किया। उनकी जयंती पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित देशभर के नेता और नागरिक उन्हें नमन कर रहे हैं।  

बिरसा मुंडा का योगदान सदियों तक याद किया जाएगा। उनका जीवन यह संदेश देता है कि अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए निडर और संगठित होना जरूरी है।

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